Monday 9 July 2012

श्री अमरनाथ यात्रा




अमरनाथ यात्रा का इतिहास
अमरनाथ हिन्दुओं का एक प्रमुख तीर्थस्थल है। यह जम्मू कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर के उत्तर – पूर्व में 135 सहस्त्रमीटर दूर समुद्र तल से 3888 मीटर (13,500 फुट) की ऊंचाई पर स्थित है। इस गुफा की लंबाई (भीतर की ओर गहराई) 19 मीटर और चौड़ाई 16 मीटर है। यह गुफा लगभग 150 फीट क्षेत्र में फैली है और गुफा 11 मीटर ऊंची है तथा इसमें हजारों श्रद्धालु समा सकते हैं। प्रकृति का अद्भुत वैभव अमरनाथ गुफा भगवान शिव के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। अमरनाथ को तीर्थो का तीर्थ कहा जाता है। एक पौराणिक गाथा के अनुसार भगवान शिव ने पार्वती को अमरत्व का रहस्य (जीवन और मृत्यु के रहस्य) बताने के लिए इस गुफा को चुना था। मृत्यु को जीतने वाले मृत्युंजय शिव अमर हैं, इसलिए अमरेश्वर भी कहलाते हैं। जनसाधारण अमरेश्वर को ही अमरनाथ कहकर पुकारते हैं।
श्री अमरनाथ यात्रा के उद्गम के बारे में इतिहासकारों के अलग-अलग विचार हैं। कुछ लोगों का विचार है कि यह ऐतिहासिक समय से संक्षिप्त व्यवधान के साथ चली आ रही है जबकि अन्य लोगों का कहना है कि यह 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में मलिकों या मुस्लिम गडरियों द्वारा पवित्र गुफा का पता लगाने के बाद शुरू हुई। आज भी चौथाई चढ़ावा उस मुसलमान गडरिए के वंशजों को मिलता है। इतिहासकारों का विचार है कि अमरनाथ यात्रा हजारों वर्षों से विद्यमान है। तथा बाबा अमरनाथ दर्शन का महत्त्व पुराणों में भी मिलता है। पुराण अनुसार काशी में लिंग दर्शन और पूजन से दस गुना, प्रयाग से सौ गुना और से हजार गुना पुण्य देनेवाले श्री अमरनाथ के दर्शन है। बृंगेश सहिंता, नीलमत पुराण, कल्हण की राजतरंगिनी आदि में इस का बराबर उल्लेख मिलता है। बृंगेश संहिता में कुछ महत्त्वपूर्ण स्थानों का उल्लेख है जहाँ तीर्थयात्रियों को श्री अमरनाथ गुफा की ओर जाते समय धार्मिक अनुष्ठान करने पड़ते थे। उनमें अनन्तनया (अनन्तनाग), माच भवन (मट्टन), गणेशबल (गणेशपुर), मामलेश्वर (मामल), चंदनवाड़ी (2,811 मीटर), सुशरामनगर (शेषनाग) 3454 मीटर, पंचतरंगिनी (पंचतरणी) 3845 मीटर और अमरावती शामिल हैं।



कल्हड़ की राजतरंगिनी तरंग द्वितीय में कश्मीर के शासक सामदीमत (34 ईपू-17वीं ईस्वी) का एक आख्यान है। वह शिव का एक बड़ा भक्त था जो वनों में बर्फ़ के शिवलिंग की पूजा किया करता था। बर्फ़ का शिवलिंग कश्मीर को छोड़कर विश्व में कहीं भी नहीं मिलता। कश्मीर में भी यह आनन्दमय ग्रीष्म काल में प्रकट होता है। कल्हन ने यह भी उल्लेख किया है कि अरेश्वरा (अमरनाथ) आने वाले तीर्थयात्रियों को सुषराम नाग (शेषनाग) आज तक दिखाई देता है। नीलमत पुराण में अमरेश्वरा के बारे में दिए गए उल्लेख से पता चलता है कि इस तीर्थ के बारे में छठी – सातवीं शताब्दी में भी जानकारी थी । कश्मीर के महान शासकों में से एक था जैनुलबुद्दीन(1420-70 ईस्वी) जिसे कश्मीरी लोग प्यार से बादशाह कहते थे। उसने अमरनाथ गुफा की यात्रा की थी। इस बारे में उसके इतिहासकर जोनरजा ने उल्लेख किया है। अकबर के इतिहासकर अबुल फज़ल (16वीं शताब्दी) ने आइन-ए-अकबरी में उल्लेख किया है कि अमरनाथ एक पवित्र तीर्थस्थल है। गुफा में बर्फ़ का एक बुलबुला बनता है। जो थोड़ा-थोड़ा कर के 15 दिन तक रोजाना बढता रहता है और दो गज से अधिक ऊंचा हो जाता है। चन्द्रमा के घटने के साथ-साथ वह भी घटना शुरू कर देता है और जब चांद लुप्त हो जाता है तो शिवलिंग भी विलुप्त हो जाता है। भारत के ऑक्सफोर्ड इतिहास के लेखक विसेंट ए स्मिथ ने बरनियर की पुस्तक के दूसरे संस्करण का सम्पादन करते समय टिप्पणी की थी कि अमरनाथ गुफा आश्चर्यजनक जमाव से परिपूर्ण है जहां छत से पानी बूंद-बूंद करके गिरता रहता है और जमकर बर्फ़ के खंड का रूप ले लेता है। इसी की हिन्दू शिव की प्रतिमा के रूप में पूजा करते हैं।


स्वामी विवेकानंद ने 1898 में 8 अगस्त को अमरनाथ गुफा की यात्रा की थी और बाद में उन्होंने उल्लेख किया कि मैंने सोचा कि बर्फ़ का लिंग स्वयं शिव हैं। मैंने ऐसी सुन्दर, इतनी प्रेरणादायक कोई चीज नहीं देखी और न ही किसी धार्मिक स्थल का इतना आनन्द लिया है। लारेंस अपनी पुस्तक वैली ऑफ कश्मीर में कहते हैं कि मट्टन के ब्राह्मण अमरनाथ के तीर्थ यात्रियों में शामिल हो गए और बाद में बटकुट में मलिकों ने जिम्मेदारी संभाल ली क्योंकि मार्ग को बनाए रखना उनकी जिम्मेदारी है, वे ही गाइड के रूप में कार्य करते हैं और बीमारों, वृद्धों की सहायता करते हैं। साथ ही वे तीर्थ यात्रियों की जान व माल की सुरक्षा भी सुनिश्चित करते हैं। इसके लिए उन्हें धर्मस्थल के चढावे का एक तिहाई हिस्सा मिलता है। जम्मू कश्मीर में हिन्दुओं के विभिन्न मंदिरों का रखरखाव करने वाले धमार्थ न्यास की जिम्मेदारी संभालने वाले मट्टन के ब्राह्मण और अमृतसर के गिरि महंत जो कश्मीर में सिखों की सत्ता शुरू होने के समय से आज तक मुख्यतीर्थ यात्रा के अग्रणी के रूप में छड़ी मुबारक ले जाते हैं, चढावे का शेष हिस्सा लेते हैं। अमरनाथ तीर्थयात्रियों की ऐतिहासिकता का समर्थन करने वाले इतिहासकारों का कहना है कि कश्मीर घाटी पर विदेशी आक्रमणों और हिन्दुओं के वहां से चले जाने से उत्पन्न अशांति के कारण 14वीं शताब्दी के मध्य से लगभग तीन सौ वर्ष की अवधि के लिए यात्रा बाधित रही। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि 1869 के ग्रीष्म काल में गुफा की फिर से खोज की गई और पवित्र गुफा की पहली औपचारिक तीर्थ यात्रा तीन साल बाद 1872 में आयोजित की गई थी। इस तीर्थयात्रा में मलिक भी साथ थे।


शिवलिंग


यहाँ की प्रमुख विशेषता पवित्र गुफा में बर्फ़ से प्राकृतिक शिवलिंग का निर्मित होना है। प्राकृतिक हिम से निर्मित होने के कारण इस स्वयंभू हिमानी शिवलिंग भी कहते हैं। पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षा बंधन तक पूरे सावन महीने में होने वाले पवित्र हिमलिंग दर्शन के लिए लाखों लोग यहाँ आते हैं। गुफा की परिधि लगभग डेढ़ सौ फुट है और इसमें ऊपर से बर्फ़ के पानी की बूंदे जगह – जगह टपकती रहती है। यही पर एक ऐसी जगह है, जिसमें टपकने वाली हिम बूंदों से लगभग 12 – 18 फुट लंबा शिवलिंब बनता है। यह बूंदे इतनी ठंडी होती है कि नीचे गिरते ही बर्फ़ का रूप लेकर ठोस हो जाती है। चन्द्रमा के घटने – बढ़ने के साथ – साथ इस बर्फ़ का आकार भी घटता – बढ़ता रहता है। श्रावण को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावस्या तक धीरे – धीरे छोटा होता जाता है। आश्चर्य की बात यही है कि यह शिवलिंग ठोस बर्फ़ का बना होता है, जबकि गुफा में आमतौर पर कच्ची बर्फ़ ही होती है जो हाथ में लेते ही भुरभुरा जाए। मूल अमरनाथ शिवलिंग से कई फुट दूर गणेश, भैरव और पार्वती के वैसे ही अलग अलग हिमखंड है।गुफा में अमरकुंड का जल प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। गुफा में टपकता बूंद-बूंद जल भक्तों के लिए शिव का आशीर्वाद होता है। इस हिम शिवलिंग को लेकर हर एक के मन में जिज्ञासावश प्रश्र उठता है कि आखिर इतनी ऊंचाई पर स्थित गुफा में इतना ऊंचा बर्फ़ का शिवलिंग कैसे बनता है। जिन प्राकृतिक स्थितियों में इस शिवलिंग का निर्माण होता है वह के तथ्यों से विपरीत है। यही बात सबसे ज़्यादा अचंभित करती है। विज्ञान के अनुसार बर्फ़ को जमने के लिए क़रीब शून्य डिग्री तापमान जरुरी है। किंतु अमरनाथ यात्रा हर साल जून जुलाईमें शुरू होती है। तब इतना कम तापमान संभव नहीं होता। इस बारे में विज्ञान के तर्क है कि अमरनाथ गुफा के आसपास और उसकी दीवारों में मौजूद दरारे या छोटे-छोटे छिद्रों में से शीतल हवा की आवाजाही होती है। इससे गुफा में और उसके आस-पास बर्फ़ जमकर लिंग का आकार ले लेती है। किंतु इस तथ्य की कोई पुष्टि नहीं हुई है। में आस्था रखने वाले मानते हैं कि ऐसा होने पर बहुत से शिवलिंग इस प्रकार बनने चाहिए। साथ ही इस गुफा में और शिवलिंग के आस-पास कच्ची बर्फ़ पाई जाती है, जो छूने पर बिखर जाती है। जबकि हिम शिवलिंग का निर्माण पक्की बर्फ़ से होता है। धर्म को मानने वालों के लिए यही अद्भूत बातें आस्था पैदा करती है। बर्फ़ से बनी शिवलिंग को लेकर एक मान्यता यह भी है कि इसकी ऊंचाई चंद्रमा की कलाओं के साथ घटती – बढ़ती है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में बाबा अमरनाथ गुफा के दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालुओं की आस्थावश की गई भूल से शिवलिंग पूरा आकार न ले सका। क्योंकि हर श्रद्धालु बाबा के दर्शन पाकर भाव-विभोर हो जाता है। जिससे वह शिवलिंग को छू कर, धूप, दीपक जलाकर अपनी श्रद्धा प्रगट करता है। संभवत: अधिक श्रद्धालुओं के गुफा में प्रवेश के कारण और उनके द्वारा दीपक या अगरबत्ती आदि जलाने से तापमान के बढऩे को ही शिवलिंग के पूर्ण स्वरूप नहीं लेने का कारण माना गया। इसलिए अब अमरनाथ बोर्ड द्वारा भी भक्तों की आस्था को ध्यान में रखते हुए शिवलिंग के दूर से दर्शन और उपासना संबंधी सावधानियों के सख्त नियमों का पालन कराया जाता है। इस प्रकार बाबा अमरनाथ का यह दिव्य शिवलिंग जहां भक्तों की धर्म में आस्था को ऊंचाईयां देता है, वहीं विज्ञान को अचंभित करता है।


खोज जुङी कथा –
लोक मान्यता है कि भगवान शंकर की इस पवित्र गुफा की खोज का श्रेय एक गुज्जर यानि गड़रिये बुटा मलिक को जाता है। एक बार बुटा मलिक पशुओं को चराता हुआ ऊंची पहाड़ी पर निकल गया। वहां उसकी मुलाकात एक संत से हुई। उस संत ने गडरिये को कोयले से भरा थैला दिया। वह थैला लेकर गडरिया घर पहुंचा। जब उसने वह थैला खोला तो वह यह देखकर अचंभित हो गया कि उस थैले में भरे कोयले के टुकड़े सोने के सिक्कों में बदल गए। वह गडरिया बहुत खुश हुआ। वह गडरिया तुरंत ही उस दिव्य संत का आभार प्रकट करने के लिए उसी स्थान पर पहुंचा। लेकिन उसने वहां पर संत को न पाकर उस स्थान पर एक पवित्र गुफा और अद्भुत हिम शिवलिंग के दर्शन किए। जिसे देखकर वह अभिभूत हो गया। उसने पुन: गांव पहुंचकर यह सारी घटना गांववालों को बताई। सभी ग्रामवासी उस गुफा और शिवलिंग के दर्शन के लिए वहां आए। माना जाता है कि तब से ही इस तीर्थयात्रा की परंपरा शुरू हो गई।
इसी प्रकार पौराणिक मान्यता है कि एक बार कश्मीर की घाटी जलमग्र हो गई। उसने एक बड़ी झील का रूप ले लिया। जगत के प्राणियों की रक्षा के उद्देश्य से ऋषि कश्यप ने इस जल को अनेक नदियों और छोटे-छोटे जलस्त्रोतों के द्वारा बहा दिया। उसी समय भृग ऋषि पवित्र हिमालय पर्वत की यात्रा के दौरान वहां से गुजरे। तब जल स्तर कम होने पर हिमालय की पर्वत श्रृखंलाओं में सबसे पहले भृगु ऋषि ने अमरनाथ की पवित्र गुफा और बर्फानी शिवलिंग को देखा। मान्यता है कि तब से ही यह स्थान शिव आराधना का प्रमुख देवस्थान बन गया और अनगिनत तीर्थयात्री शिव के अद्भुत स्वरूप के दर्शन के लिए इस दुर्गम यात्रा की सभी कष्ट और पीड़ाओं को सहन कर लेते हैं। यहां आकर वह शाश्वत और अनंत अध्यात्मिक सुख को पाते हैं।


अमरनाथ यात्रा

अमरनाथ यात्रा को उत्तर भारत की सबसे पवित्र तीर्थयात्रा माना जाता है। यात्रा के दौरान भारत की विविध परंपराओं, धर्मो और संस्कृतियों की झलक देखी जा सकती है। अमरनाथ यात्रा में शिव भक्तों को कड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। रास्ते उबड़ – खाबड़ है, रास्ते में कभी बर्फ़ गिरने लग जाती है, कभी बारिश होने लगती है तो कभी बर्फीली हवाएं चलने लगती है। फिर भी भक्तों की आस्था और भक्ति इतनी मजबूत होती है कि यह सारे कष्ट महसूस नहीं होते और बाबा अमरनाथ के दर्शनों के लिए एक अदृश्य शक्ति से खिंचे चले आते हैं। यह माना जाता है कि अगर तीर्थयात्री इस यात्रा को सच्ची श्रद्धा से पूरा कर तो वह भगवान शिव के साक्षात दर्शन पा सकते हैं।


यातायात


देश के सभी कोनों से तीर्थयात्री रेल, बस या हवाई जहाज़ के जरिए आसानी से जम्मू पहुंच सकते हैं। श्रद्धालुओं की तीर्थयात्रा जम्मू से शुरू होती है।अमरनाथ यात्रा पर जाने के भी दो रास्ते हैं। एक पहलगाम होकर और दूसरा सोनमर्ग बलटाल से। यानी कि पहलगाम और बलटाल तक किसी भी सवारी से पहुंचे, यहां से आगे जाने के लिए अपने पैरों का ही इस्तेमाल करना होगा। अशक्त या वृद्धों के लिए सवारियों का प्रबंध किया जा सकता है। हालांकि पवित्र गुफा सिंध घाटी में सिंध नदी की एक सहायक नदी अमरनाथ (अमरावती) के पास स्थित है तथापि इस तक परम्परागत रूप से बरास्ता लिदर घाटी पहुंचा जाता है। श्रद्धालु इस मार्ग पर दक्षिण कश्मीर में पहलगांव से होकर पवित्र गुफा पहुंचते हैं और चंदनवाड़ी, पिस्सू घाटी, शेषनाग और पंचतरनी से गुजरते हुए लगभग 46 किलोमीटर की यात्रा करते हैं। पहलगाम से जाने वाले रास्ते को सरल और सुविधाजनक समझा जाता है। एक और छोटा रास्ता श्रीनगर – लेह राजमार्ग पर स्थित बालताल से है। बलटाल से अमरनाथ गुफा की दूरी केवल 14 किलोमीटर है और यह बहुत ही दुर्गम रास्ता है और सुरक्षा की दृष्टि से भी संदिग्ध है। इसमें कुछ क्षेत्र सीधी चढ़ाई और गहरी ढलान वाले हैं। इसीलिए सरकार इस मार्ग को सुरक्षित नहीं मानती और अधिकतर यात्रियों को पहलगाम के रास्ते अमरनाथ जाने के लिए प्रेरित करती है। लेकिन रोमांच और जोखिम लेने का शौक़ रखने वाले लोग इस मार्ग से यात्रा करना पसंद करते हैं। अतीत में यह मार्ग ग्रीष्म ऋतु की शुरूआत में प्रयोग में आता था लेकिन कभी – कभी बर्फ़ के पिघलने के कारण इस मार्ग का प्रयोग असंभव हो जाता था । लेकिन समय के बीतने के साथ परिस्थितियों में सुधार हुआ है और दोनों ही मार्गों पर यात्रा काफ़ी आसान हो गई है।


पहलगाम से अमरनाथ


अमरनाथ की गुफा तक पहुंचने के लिए तीर्थयात्री जम्मू से पहलगाम / पहलगांव जाते हैं। यह दूरी सडक मार्ग से पहलगाम जम्मू से 365 किलोमीटर की दूरी पर है। यह विख्यात पर्यटन स्थल भी है और यह पर्वतों से घिरा क्षेत्र है और सुंदर प्राकृतिक दृश्यों के लिए विश्वप्रसिद्ध है। यह लिद्दर नदी के किनारे बसा है। पहलगाम तक जाने के लिए जम्मू – कश्मीर पर्यटन केंद्र से सरकारी बस उपलब्ध रहती है। यदि आप श्रीनगर के हवाई अड्डे पर उतरते हैं, तो लगभग 96 कि.मी. की सडक – यात्रा कर पहलगाम पहुंच सकते हैं। पहलगाम में ठहरने के लिए सामाजिक – धार्मिक संगठनों की ओर से आवासीय व्यवस्था है। पहलगाम और गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से लंगर की व्यवस्था की जाती है। पहलगाम से एक कि.मी. नीचे ही ‘नुनवन’ में यात्री बेस कैम्प पर पहला पड़ाव होता है। तीर्थयात्रियों की पैदल यात्रा यहीं से आरंभ होती है।


चंदनबाड़ी


अमरनाथ जाने का रास्ता


पहलगाम के बाद पहला पड़ाव चंदनबाड़ी है, जो पहलगाम से 16 किलोमीटर की दूरी पर है। यह स्थान समुद्रतल से 9500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। पहली रात तीर्थयात्री यही बिताते हैं। यहां रात्रि निवास के लिए कैंप लगाए जाते हैं। इसके ठीक दूसरे दिन पिस्सु घाटी की चढ़ाई शुरू होती है। लिद्दर नदी के किनारे से इस पड़ाव की यात्रा आसान होती है। यह रास्ता वाहनों द्वारा भी पूरा किया जा सकता है। यहां से आगे जाने के लिए घोड़ों, पालकियों अथवा पिट्ठुओं की सुविधा मिल जाती है। चंदनबाड़ी से पिस्सुटॉप जाते हुए रास्ते में बर्फ़ का पुल आता है। यह घाटी सर्पाकार है।


पिस्सू टाप


चंदनवाडी से 3 किमी चढाई करने के बाद आपको रास्ते में पिस्सू टाप पहाडी मिलेगी। जनश्रुतियां हैं कि पिस्सु घाटी पर देवताओं और राक्षसों के बीच घमासान लड़ाई हुई जिसमें देवताओं ने कई दानवों को मार गिराया था। दानवों के कंकाल एक ही स्थान पर एकत्रित होने के कारण यह पहाडी बन गई। अमरनाथ यात्रा में पिस्सु घाटी काफ़ी जोखिम भरा स्थल है। पिस्सु घाटी समुद्रतल से 11,120 फुट की ऊंचाई पर है। लिद्दर नदी के किनारे – किनारे पहले चरण की यह यात्रा ज़्यादा कठिन नहीं है। पिस्सू घाटी की सीधी चढ़ाई चढते हैं जो शेषनाग नदी के किनारे चलती है। 12 कि. मी. का लम्बा नदी का किनारा शेषनाग झील पर जाकर समाप्त होता है। यही तो नदी का उदगम स्थल है। (यही नदी पहलगाम से नीचे जाकर झेलम दरिया में मिल जाती है)


शेषनाग


पिस्सू टाप से 12 कि.मी. दूर 11,730 फीट की ऊंचाई पर शेषनाग पर्वत है, जिसके सातों शिखर शेषनाग के समान लगते हैं। यह मार्ग खड़ी चढ़ाई वाला और खतरनाक है। यहां तक की यात्रा तय करने में 4-5 घंटे लगते हैं। यहीं पर पिस्सु घाटी के दर्शन होते हैं। यात्री शेषनाग पहुंच कर तंबू / कैंप लगाकर अपना दूसरा पडाव डालते हैं। यहां पर्वतमालाओं के बीच नीले पानी की ख़ूबसूरत झील है। जिसे शेषनाग झील कहते हैं। इस झील में झांक कर यह भ्रम हो उठता है कि कहीं आसमान तो इस झील में नहीं उतर आया। यह झील क़रीब डेढ़ किलोमीटर लंबाई में फैली है। किंवदंतियों के मुताबिक शेषनाग झील में शेषनाग का वास है और चौबीस घंटों के अंदर शेषनाग एक बार झील के बाहर दर्शन देते हैं, लेकिन यह दर्शन खुशनसीबों को ही नसीब होते हैं। तीर्थयात्री यहां रात्रि विश्राम करते है और यहीं से तीसरे दिन की यात्रा शुरू करते हैं। शेषनाग और इससे आगे की यात्रा बहुत कठिन है। यहां बर्फीली हवाएं चलती रहती हैं। शेषनाग से पोषपत्री तथा फिर पंचतरणी की दूरी छह किलोमीटर है। पोषपत्री नामक यह स्थान 12500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। पोषपत्री में विशाल भंडारे का आयोजन होता है। यहां भोजन, आवास, चिकित्सा सुविधा, ऑक्सिजन सिलिंडर आदि की सुविधा उपलब्ध रहती है।


पंचतरणी


शेषनाग से पंचतरणी आठ मील के फासले पर है। मार्ग में बैववैल टॉप और महागुणास दर्रे को पार करना पड़ता है, जिनकी समुद्र तल से ऊंचाई क्रमश: 13,500 फुट व 14,500 फुट है। इस स्थान पर अनेक झरनें, जल प्रपात और चश्में और मनोरम प्राकृतिक दृश्य दिखाई देते हैं। महागुणास चोटी से नीचे उतरते हुए 9.4 कि.मी. की दूरी तय करके पंचतरिणी पहुंचा जा सकता है। यहां पांच छोटी – छोटी सरिताएं बहने के कारण ही इस स्थल का नाम पंचतरणी पड़ा है। पंचतरणी 12,500 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यह भैरव पर्वत की तलहटी में बसा है। यह स्थान चारों तरफ से पहाड़ों की ऊंची – ऊंची चोटियों से ढका है। ऊंचाई की वजह से ठंड भी ज़्यादा होती है। आक्सीजन की कमी की वजह से तीर्थयात्रियों को यहां सुरक्षा के इंतजाम करने पड़ते हैं। आगे की यात्रा में भैरव पर्वत


दर्शन का समय


पूर्णमासी सामान्यत भगवान शिव से संबंधित नहीं है, लेकिन बर्फ़ के पूरी तरह विकसित शिवलिंग के दर्शनों के कारण श्रावण पूर्णमासी (जुलाई - अगस्त) का अमरनाथ यात्रा के साथ संबंध है और पर्वतों से गुजरते हुए गुफा तक पहुंचने के लिए इस अवधि के दौरान मौसम काफ़ी हद तक अनुकूल रहता है। इसलिए बाबा अमरनाथ के दर्शन के लिए तीर्थयात्री अमूमन मध्य जून, जुलाई और अगस्त ( आषाढ पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षा बंधन तक पूरे सावन महीने) में आते हैं। जुलाई-अगस्त माह में मॉनसून के आगमन के दौरान पूरी कश्मीर वादी में हर तरफ हरियाली ही हरियाली ही दिखती है। यह हरियाली यहां की प्राकृतिक सुंदरता में चार चांद लगाती है। यात्रा के शुरू और बंद होने की घोषणा श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड करती है। इस यात्रा के साथ मात्र हिन्दुओं की ही नहीं बल्कि मुस्लिम और अन्य धर्म की श्रद्धालुओं की भी आस्था जुड़ी है।


छड़ी मुबारक


रक्षाबंधन के दिन पवित्र अमरनाथ धाम में भगवान शिव का विधिवत पूजन कश्मीर के साधु समाज के प्रमुख और गुफा के मुख्य पुजारी करते हैं। कुछ वर्ष पहले तक साधुओं की टोली के साथ यात्रा की प्रतीक छड़ी मुबारक को श्रीनगर से बिजबेहरा, पहलगाम, चंदनबाड़ी, शेषनाग, पंजतरनी के रास्ते से अमरनाथ लाया जाता था। पर अब छड़ी मुबारक की यह यात्रा जम्मू से शुरू होकर परंपरागत मार्ग से होते हुए सीधे पहलगाम तक होती है। इस मार्ग पर आम यात्री राज्य परिवहन की बसों द्वारा एक दिन में जम्मू से 270 किलोमीटर ऊपर नुनवान कैंप (पहलगाम) में पहुंच जाते हैं। उससे आगे 16 किलोमीटर चंदनवाड़ी तक का सफर टैक्सियों और स्थानीय मिनी बसों द्वारा होता है। आगे चंदनबाड़ी से अमरनाथ तक 32 किलोमीटर पैदल जाने और उतना ही पैदल आने का सफर चार दिनों में तय होता है। यात्रियों की सुविधा के लिए जम्मू – कश्मीर सरकार का पर्यटन विभाग आरक्षण आदि की व्यवस्था भी करता है। रात्रि विश्राम के लिए टेंट, बिस्तर, फ़ोन इत्यादि की भी अच्छी व्यवस्था हैं। इस पवित्र क्षेत्र में तरह-तरह की उपयोगी जड़ी बूटियां बहुतायत में उगती हैं।


मोबाइल सेवा का शुभारंभ






भारत सरकार ने पवित्र अमरनाथ गुफा पर भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) की मोबाइल सेवा का अधिकारिक तौर पर शुभारंभ किया। बीएसएनएल ने 13,500 फुट ऊंचाई पर स्थित पवित्र गुफा पर मोबाइल सेवा शुरू करने के लिए बालटाल, नुनवान, लाकीपोरा, बेताब घाटी, संगम / पवित्र गुफा, पंजतरणी, चंदनवाडी व चंदनवाडी बेस कैंप में कुल 11 टावर लगाए हैं। इससे वार्षिक अमरनाथ यात्रा पर आने वाले 4 लाख से अधिक श्रद्धालुओं को लाभ होगा और वे यात्रा के दौरान अपने घर पर परिवार के साथ लगातार संपर्क में रह सकेंगे।

Taj Mahal ताज महल تاج محل



ताजमहल - अतुल्य भारत की पहचान !
हमेशा से ताजमहल यह भारत की पहचान रहा है ।
ताज महल का केन्द्र बिंदु है, एक र पर बना श्वेत संगमर्मर का मकबरा। यह एक सममितीय इमारत है, जिसमें एक ईवान यानि अतीव विशाल वक्राकार (मेहराब रूपी) द्वार है। इस इमारत के ऊपर एक वृहत गुम्बद सुशोभित है। अधिकतर मुगल मकबरों जैसे, इसके मूल अवयव फारसी उद्गम से हैं।इसका मूल-आधार एक विशाल बहु-कक्षीय संरचना है। यह प्रधान कक्ष घनाकार है, जिसका प्रत्येक किनारा 55 मीटर है। लम्बे किनारों पर एक भारी-भरकमपिश्ताक, या मेहराबाकार छत वाले कक्ष द्वार हैं। यह ऊपर बने मेहराब वाले छज्जे से सम्मिलित है।मुख्य मेहराब के दोनों ओर, एक के ऊपर दूसरा शैली में, दोनों ओर दो-दो अतिरिक्त पिश्ताक़ बने हैं। इसी शैली में, कक्ष के चारों किनारों पर दो-दो पिश्ताक (एक के ऊपर दूसरा) बने हैं। यह रचना इमारत के प्रत्येक ओर पूर्णतया सममितीय है, जो कि इस इमारत को वर्ग के बजाय अष्टकोण बनाती है, परंतु कोने के चारों भुजाएं बाकी चार किनारों से काफी छोटी होने के कारण, इसे वर्गाकार कहना ही उचित होगा। मकबरे के चारों ओर चार मीनारें मूल आधार चौकी के चारों कोनों में, इमारत के दृश्य को एक चौखटे में बांधती प्रतीत होती हैं। मुख्य कक्ष में मुमताज महल एवं शाहजहाँ की नकली कब्रें हैं। ये खूब अलंकृत हैं, एवं इनकी असल निचले तल पर स्थित है।मकबरे पर सर्वोच्च शोभायमान संगमर्मर का गुम्बद (देखें बांये), इसका सर्वाधिक शानदार भाग है। इसकी ऊँचाई लगभग इमारत के आधार के बराबर, 35 मीटर है, और यह एक 7 मीटर ऊँचे बेलनाकार आधार पर स्थित है। यह अपने आकारानुसार प्रायः प्याज-आकार (अमरूद आकार भी कहा जाता है) का गुम्बद भी कहलाता है। इसका शिखर एक उलटे रखे कमल से अलंकृत है। यह गुम्बद के किनारों को शिखर पर सम्मिलन देता है।गुम्बद के आकार को इसके चार किनारों पर स्थित चार छोटी गुम्बदाकारी छतरियों (देखें दायें) से और बल मिलता है। छतरियों के गुम्बद, मुख्य गुम्बद के आकार की प्रतिलिपियाँ ही हैं, केवल नाप का फर्क है। इनके स्तम्भाकार आधार, छत पर आंतरिक प्रकाश की व्यवस्था हेतु खुले हैं। संगमर्मर के ऊँचे सुसज्जित गुलदस्ते, गुम्बद की ऊँचाई को और बल देते हैं। मुख्य गुम्बद के साथ-साथ ही छतरियों एवं गुलदस्तों पर भी कमलाकार शिखर शोभा देता है। गुम्बद एवं छतरियों के शिखर पर परंपरागत फारसी एवं हिंदू वास्तु कला का प्रसिद्ध घटक एक धात्विक कलश किरीटरूप में शोभायमान है।


मुख्य गुम्बद के किरीट पर कलश है (देखें दायें)। यह शिखर कलश आरंभिक 1800 तक स्वर्ण का था, और अब यह कांसे का बना है। यह किरीट-कलश फारसी एवं हिंन्दू वास्तु कला के घटकों का एकीकृत संयोजन है। यह हिन्दू मन्दिरों के शिखर पर भी पाया जाता है। इस कलश पर चंद्रमा बना है, जिसकी नोक स्वर्ग की ओर इशारा करती हैं। अपने नियोजन के कारण चन्द्रमा एवं कलश की नोक मिलकर एक त्रिशूल का आकार बनातीं हैं, जो कि हिन्दू भगवान शिव का चिह्न है।



मुख्य आधार के चारों कोनों पर चार विशाल मीनारें (देखें बायें) स्थित हैं। यह प्रत्येक 40 मीटर ऊँची है। यह मीनारें ताजमहल की बनावट की सममितीय प्रवृत्ति दर्शित करतीं हैं। यह मीनारें मस्जिद में अजा़न देने हेतु बनाई जाने वाली मीनारों के समान ही बनाईं गईं हैं। प्रत्येक मीनार दो-दो छज्जों द्वारा तीन समान भागों में बंटी है। मीनार के ऊपर अंतिम छज्जा है, जिस पर मुख्य इमारत के समान ही छतरी बनीं हैं। इन पर वही कमलाकार आकृति एवं किरीट कलश भी हैं। इन मीनारों में एक खास बात है, यह चारों बाहर की ओर हलकी सी झुकी हुईं हैं, जिससे कि कभी गिरने की स्थिति में, यह बाहर की ओर ही गिरें, एवं मुख्य इमारत को कोई क्षति न पहुँच सके।



ताजमहल का बाहरी अलंकरण, मुगल वास्तुकला का उत्कृष्टतम उदाहरण हैं। जैसे ही सतह का क्षेत्रफल बदलता है, बडे़ पिश्ताक का क्षेत्र छोटे से अधिक होता है, और उसका अलंकरण भी इसी अनुपात में बदलता है। अलंकरण घटक रोगन या गचकारी से अथवा नक्काशी एवं रत्न जड़ कर निर्मित हैं। इस्लाम के मानवतारोपी आकृति के प्रतिबन्ध का पूर्ण पालन किया है। अलंकरण को केवल सुलेखन, निराकार, ज्यामितीय या पादप रूपांकन से ही किया गया है।


ताजमहल में पाई जाने वाले सुलेखन फ्लोरिड थुलुठ लिपि के हैं। ये फारसी लिपिक अमानत खां द्वारा सृजित हैं। यह सुलेख जैस्प‍र को श्वेत संगमर्मर के फलकों में जड़ कर किया गया है। संगमर्मर के सेनोटैफ पर किया गया कार्य अतीव नाजु़क , कोमल एवं महीन है। ऊँचाई का ध्यान रखा गया है। ऊँचे फलकों पर उसी अनुपात में बडा़ लेखन किया गया है, जिससे कि नीचे से देखने पर टेढा़पन ना प्रतीत हो। पूरे क्षेत्र में कु़रान की आयतें, अलंकरण हेतु प्रयोग हुईं हैं। हाल ही में हुए शोधों से ज्ञात हुआ है, कि अमानत खाँ ने ही उन आयतों का चुनाव भी किया था।

Dwarka Temple

According to Hindu tradition still extant, the earliest known conqueror of Okhamandal was Shri Krishna, called also Ranchodji, the eight incaranation of Vishnu, Who after his seventeenth battle with Jara Sangh, king of Magadh Desh, fled from Mathura, and eventually arrived with his army at Okhamandal which he subjected after a hard struggle with the Kalas. Shri Krishna established his capital at Dwarka on the bank of the Gomti Creek.


Krishna was succeeded by the great grandson of Vajranabh, who enjoys the saintly reputation of having built the present temple Dwarkanath, called also Trilok sundar, signifying 'the handsomest of the three world' Many Hindus religiously believe that the temple was erected in one night by supernatural agency, under Vajranabh's direction.


Certain it is that whole of western and south-western Saurashtra, now included in a Jamnagar and Junaghadh districts was colonized by the Yadavas, whose most important leader was Shri Krishna. The Yadavas ruled and when they perished in a family quarrel under the influence of drink, and after Shri Krishna's death Dwarka submerged under the sea. In this region the original in habitants are said to Kabas, Modas and Kalas, The Kabas and Modas now seem to be extinct but the present day Vaghers are said to have descended from the Kabas.


The Kalas re-conquered Okhamandal in the 2nd Century A.D next a Syrian Sukkur Belium conquered this region and during this time Dwarka submerged by the sea. He was driven out by another Syrian named Mehem Guduka. Again Kalas now know as Vaghers.


It was 13th century when the Rathods came and took advantage of the Herule-chavada quarrels. The few surviving chavadas and Herules were absorbed by the Vaghers. Veravalji, the Rathod now became the sole ruler of Okhamandal. During the periods of Bhimji, Mahmud Begada who was sultan of Gujarat, conquered Okhamandal destroying the temple at Dwarka. Later the Vaghers drove out the Muslim.